महात्मा कबीर दास Mahatma Kabir Das

कबीर दास, निर्गुण भक्ति के संत और कवि जिनकी जयंती ज्येष्ठ पूर्णिमा को मनाई जाती है। कबीर दास जी का जन्म सन् 1398 में वाराणसी में हुआ था। उनके पिता संत तोहाराम जी और माता नीमा जी थे। इसके बाद उन्होंने अपनी रचनाओं के जरिए सामान्य लोगों को धार्मिक तत्वों के बारे में जागरूक किया। 
कबीर दास जी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज की विभिन्न मुद्दों पर संदेश दिया। उन्होंने जाति व्यवस्था, धार्मिकता, तानाशाही, जातिवाद, अज्ञानता आदि के खिलाफ उठाव दिया। उनकी रचनाओं में सत्य, न्याय, प्रेम, समता, अन्याय, दया और अस्वीकार्यता के महत्वपूर्ण संकेत हैं।

     कबीर दास जी के दोहे अद्वितीय हैं और उन्हें उनकी सरलता और प्रभावशाली व्यंग्य की वजह से याद किया जाता है। उनके दोहे साधारण जीवन की समस्याओं पर प्रकाश डालते हैं और मानवीय जीवन के मूल्यों को उजागर करते हैं। यहां कुछ प्रमुख कबीर दास जी के दोहे हैं:

1. "दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय। जो सुख में सुमिरन करे, दुख काहे को होय॥"

अर्थ: जब हम दुःख में होते हैं, तो सभी भगवान का स्मरण करते हैं, लेकिन सुख में हम किसी का स्मरण नहीं करते। जो व्यक्ति सुख में ही भगवान का स्मरण करता है, वह दुःख का कारण क्या हो सकता है?

2. "बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो मन खोजा आपना, तो मुझसे बुरा न कोय॥"

अर्थ: मैं बुरे की तलाश में चला, लेकिन मुझे कोई बुरा नहीं मिला। जो मन खोजा अपना, उससे मेरे अन्दर और कोई बुरा नहीं है।

इस दोहे में कबीर दास जी हमें अपनी अंतरात्मा की खोज के महत्व को बताते हैं। वे कहते हैं कि जब हम बाहरी दुनिया में बुराई की तलाश में भटकते हैं, तो हमेरे पास बुराई नहीं मिलती है। इसके विपरीत, जब हम अपनी आत्मा की खोज करते हैं, तो हमेरे अंदर कोई बुराई नहीं होती है।

यह दोहा हमें यह सिखाता है कि हमारी खुद की अन्तरात्मा को जानने के लिए हमें बाहरी दुनिया की समीक्षा और दूसरों की तुलना करने की जगह अपने आंतरिक मन की खोज करनी चाहिए। हमारे अन्दर सत्य, प्रेम, शांति और समर्पण के गुण संग्रहित होते हैं, और हमें इसे खोजना चाहिए। जब हम अपनी सच्ची पहचान को प्राप्त करते हैं, तो हम उस अंदरीकरण से उभरते हैं।

3. "अंधी आँखों को जब चाहे देखाए, सूझ न आवे बिना समझाए। हरि से निर्मल सो रूप लेवे, जो कहे सो कहे, जो करे सो करे॥"

अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जब हमारी आंखें अंधी हो जाती हैं, तब हम सत्य को नहीं देख पाते हैं और उसे समझने के बिना ही अपनी धारणाओं और मतभेदों में उलझ जाते हैं। कबीर दास जी कहते हैं कि हमें हमारी आंखों को खोलना चाहिए और सत्य को स्वीकार करना चाहिए, जो भगवान से निर्मल और उपयुक्त है। वे कहते हैं कि हमें विश्वास और धर्म में अंधविश्वास और पाखंड की बजाय सत्य को अपनाना चाहिए।
4. "चारों वेद गांठी, तेल तिल माखन होय, जैसे साँवरे खवांट अंधे खाय॥"

अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि चारों वेद गांठे हों या तेल, तिल और माखन से युक्त हों, लेकिन जैसे अंधे गांठ खाते हैं, वैसे ही मान्यताएं और धर्म के पाखंडी लोग सत्य को नहीं समझते हैं।

कबीर दास की मृत्यु - वाराणसी प्राचीन काल से ही जहां मोक्षदायिनी नगरी के रूप में जानी जाती थी तो मगहर को लोग इसलिए जानते थे कि ये एक अपवित्र जगह है, और यहां मरने से व्यक्ति अगले जन्म में गधा होता है या फिर नरक में जाता है। इसलिए अपनी मृत्यु के निकट समय कबीर दास जी मगहर में चले गए और वहीं सन् 1518 ईस्वी में इनकी मृत्यु हुई। मगहर में अब कबीर की समाधि भी है और उनकी मज़ार भी. मगहर उत्तर प्रदेश में वाराणसी से क़रीब दो सौ किलोमीटर दूर संतकबीर नगर जिले में स्थित एक कस्बा है।
एक बार गुरु रामानंद ने कबीर से कहा कि हे कबीर! आज श्राद्ध का दिन है और पितरों के लिए खीर बनानी है। आप जाइए, पितरों की खीर के लिए दूध ले आइए।
 कबीर उस समय 9 वर्ष के ही थे। वे दूध का बरतन लेकर चल पड़े। चलते-चलते रास्ते में उन्हें एक गाय मरी हुई पड़ी मिली। कबीर ने आस-पास से घास को उखाड़कर गाय के पास डाल दिया और वहीं पर बैठ गए।दूध का बरतन भी पास ही रख लिया।
 काफी देर हो गई। जब कबीर नहीं लौटे, तो गुरु रामानंद ने सोचा कि पितरों को भोजन कराने का समय हो गया है लेकिन कबीर अभी तक नहीं आया। ऐसा सोचकर रामानंद जी खुद चल दूध लेने पड़े।जब वे चलते-चलते आगे पहुंचे, तो देखा कि कबीर एक मरी हुई गाय के पास बरतन रखे बैठे हैं। यह देखकर गुरु रामानंद बोले - अरे कबीर तू दूध लेने नहीं गया.?
 कबीर बोले - स्वामीजी, ये गाय पहले घास खाएगी तभी तो दूध देगी।
रामानंद बोले - अरे ये गाय तो मरी हुई है, ये घास कैसे खाएगी?
 कबीर बोले - स्वामी जी, ये गाय तो आज मरी है। जब आज मरी गाय घास नहीं खा सकती, तो आपके 100 साल पहले मरे हुए पितृ खीर कैसे खाएंगें ?
 
यह सुनते ही रामानंद जी मौन हो गए और उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ।

कबीर दास के दोहे...
 
माटी का एक नाग बना के, पुजे लोग लुगाया
जिंदा नाग जब घर में निकले, ले लाठी धमकाया
  
जिंदा बाप कोई न पूजे, मरे बाद पुजवाया
मुठ्ठीभर चावल ले के कौवे को बाप बनाया
 
यह दुनिया कितनी बावरी है, जो पत्थर पूजे जाए
घर की चकिया कोई न पूजे, जिसका पीसा खाए

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